भारत में लिपियों का विकास
भारत में लिपि के विकास के आरंभिक संकेत हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त होते हैं। यद्यपि हड़प्पाई स्थलों से प्राप्त लिपियों को पढ़ने में कोई सफलता अब तक नहीं मिली है।
हड़प्पा सभ्यता के बाद वैदिक काल में लिपि के विकास के बारे में कोई जानकारी हमारे पास उपलब्ध नहीं है। लेकिन, वैदिकोत्तर काल से नवीन लेखन प्रणाली की शुरुआत के साक्ष्य प्राप्त होने लगते हैं।
पाणिनी रचित संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी में ‘लिपि’ और ‘लिवि’ जैसे धातु रूपों का उल्लेख मिलता है। पाणिनी ने उत्तर-पश्चिम भारत में प्रचलित ‘यवनानी लिपि’ की भी चर्चा की है, जिसकी पहचान ग्रीक लिपि से की गयी है। गौतम के धर्मसूत्र में भी उत्तर-पश्चिम भारत में प्रचलित एक लिपि खरोष्ठी का उल्लेख है।
बुद्ध के निर्वाण के तुरंत बाद संगायित विनय पिटक में लिखने के उपकरणों की चर्चा है। विनय पिटक अक्खाटिका नामक एक खेल का भी उल्लेख करता है, जो लिपियों की पहचान पर आधारित था।
जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र तत्कालीन भारत में प्रचलित लिपियों की चर्चा करता है। यहाँ ‘बम्भी’ लिपि का भी उल्लेख है, जो ब्राह्मी के रूप में पहचानी गयी।
भारत में प्रचलित लिपियाँ
सिंधु-सरस्वती लिपि
हड़प्पाई लिपि को सिंधु लिपि, सरस्वती लिपि या सिंधु सरस्वती लिपि भी कहते हैं। इस लिपि के नमूने कई हड़प्पाकालीन स्थलों से प्राप्त हुए हैं, लेकिन अभी तक अपाठ्य हैं। यह लिपि छोटे-छोटे संकेतों का समूह है, जो संभवतः हालावर्त शैली अर्थात् बाएँ से दायें और फिर दायें से बाएँ के क्रम में लिखी जाती थी।
ब्राह्मी
ब्राह्मी लिपि भारतीय आर्यों की देन मानी जाती है। माना जाता है कि ब्रह्मा ने लिखने की कला से मनुष्यों को अवगत कराया। इसीलिए ब्रह्मा से जोड़कर इस लिपि का नामकरण ब्राह्मी किया गया। तत्कालीन सम्पूर्ण मूल भारत से इसके प्रचलन के प्रमाण मिले हैं। प्राचीन भारत के अधिकाँश अभिलेख इसी लिपि में प्राप्त हुए हैं। नवीन उत्खननों में तमिलनाडु और श्रीलंका से भी इस लिपि की उपस्थिति के साक्ष्य मिले हैं। तिब्बती, कोरियाई, इथियोपियाई लिपियों पर भी ब्राह्मी का प्रभाव दिखता है। इसका प्रारंभ 6ठी शताब्दी ई॰पू॰ के आसपास माना जाता है।
यह स्वर की प्रधानता वाली लिपि है, जो बाएँ से दायें लिखी जाती है। इसमें प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग-अलग वर्णों की व्यवस्था थी। यह स्पष्ट मात्रा भेद वाली वैज्ञानिक लिपि थी। यह लिपि सबसे पहले 1837 में जेम्स प्रिंसेप द्वारा पढ़ी गयी।
विकास के स्तर
कालक्रम के अनुसार ब्राह्मी के विकास के निम्नलिखित स्तर देखे जा सकते हैं।
- अशोक पूर्व ब्राह्मी- वैदिकोत्तर काल
- अशोक कालीन ब्राह्मी- मौर्य काल
- अशोकोत्तर ब्राह्मी- मौर्योत्तर काल
- गुप्त लिपि – गुप्त काल
- कुटिल लिपि – गुप्तोत्तर काल
- उत्तर ब्राह्मी- पूर्व मध्य काल
अधिकांश आधुनिक भारतीय लिपियों का विकास भी ब्राह्मी से ही माना जाता है। पूर्व मध्यकाल से ही ब्राह्मी से निष्पन्न अन्य भारतीय लिपियाँ अस्तित्व में आने लगती हैं।
तमिल ब्राह्मी
तमिल-ब्राह्मी या तमिलि भी ब्राह्मी लिपि का ही एक परिवर्तित रूप है, जो तमिल भाषा के लेखन के लिए प्रयुक्त होती थी। तमिल भाषा के प्राचीनतम लेख इसी लिपि में मिलते हैं। यह लिपि चेर राजवंश तथा पाण्ड्य राजवंश के काल में सुप्रतिष्ठित हो गयी थी। तमिलनाडु के अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश, केरल, और श्री लंका तक से इस लिपि के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
ग्रंथ लिपि
ग्रंथ लिपि भी दक्षिण भारत की प्राचीन लिपि है, जो ब्राह्मी से निष्पन्न है। 5वीं सदी में वैदिक पुस्तकों को पहली बार लिखने के लिए ग्रंथ लिपि का प्रयोग हुआ था।मलयालम, तुलु व सिंहल लिपि पर इसका प्रभाव रहा है। “पल्लव ग्रंथ” ग्रंथ लिपि का ही एक रूप है, जो पल्लव लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता था। इसलिए, इसे “पल्लव लिपि” भी कहा जाता था। कई दक्षिण भारतीय लिपियों के अतिरिक्त म्यांमार की मोन लिपि, इंडोनेशिया की जावाई लिपि और ख्मेर लिपि इसी संस्करण से उपजीं।
शंख लिपि
शंख लिपि उन प्राचीन लिपियों में से एक है, जिसके अभिलेख आज तक नहीं पढ़े जा सके हैं। भारत तथा जावा और बोर्नियो से प्राप्त बहुत से शिलालेख शंख लिपि में हैं। शंख लिपि के बहुत से अभिलेख उत्तर में जम्मू-कश्मीर के अखनूर से लेकर दक्षिण में सुदूर कर्नाटक तथा पश्चिमी बंगाल के सुसुनिया से लेकर पश्चिम में गुजरात के जूनागढ़ तक प्राप्त हुए हैं। इस लिपि के वर्ण ‘शंख’ से मिलते-जुलते कलात्मक होते हैं, जिस कारण इसे शंख लिपि कहा गया।
शंख लिपि को राजस्थान के विराटनगर से संबंधित माना जाता है। इसके लेख बड़ी संख्या में बीजक की पहाड़ी, भीम की डूंगरी तथा गणेश डूंगरी में बनी गुफाओं में अंकित हैं। उदयगिरि की गुफाओं के शिलालेखों और स्तंभों पर भी यह लिपि खुदी हुई है। राजगीर की प्रसिद्ध सोनभंडा की गुफाओं में लगे दरवाजों की प्रस्तर चौखटों पर एवं भित्तियों पर बिहार में मुण्डेश्वरी मंदिर तथा अन्य कई स्थानों पर भी इस लिपि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
शारदा लिपि
शारदा लिपि दसवीं शताब्दी से उत्तर-पूर्वी पंजाब और कश्मीर में देखने को मिलती है। इसकी उत्पत्ति गुप्त लिपि की पश्चिमी शैली से हुई है। शारदा लिपि का सबसे पहला लेख सराहा (चंबा, हिमाचल प्रदेश) से प्राप्त प्रशस्ति है। इसके अतिरिक्त फ़ोगेल ने चंबा राज्य से शारदा लिपि के बहुत-से अभिलेख प्राप्त किए थे।
खरोष्ठी लिपि
खरोष्ठी लिपि अभारतीय लिपि है, जिसका जन्म सीरिया में हुआ। यह इरान के हखामनी शासक डेरियस द्वारा अभिलेखों में सर्वप्रथम प्रयुक्त और प्रचलित की गयी। ब्राह्मी के विपरीत, यह व्यंजनों की प्रधानता वाली लिपि है, जो दायें से बाएँ लिखी जाती है। उत्तर-पश्चिम भारत में भी यह लिपि प्रचलित थी। 1840 में एडविन नौरिस और जेम्स प्रिंसेप पहली बार इसे पढ़ने में सफल हुए।
देवनागरी लिपि
देवनागरी लिपि का उद्गम प्राचीन भारतीय लिपि ब्राह्मी से माना जाता है। 7वीं शताब्दी से नागरी के प्रयोग के प्रमाण मिलने लगते हैं।
‘नागरी‘ शब्द की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में काफी मतभेद है। कुछ लोगों के अनुसार यह नाम ‘नगरों में व्यवहत‘ होने के कारण दिया गया। इससे अलग कुछ लोगों का मानना है कि गुजरात के नागर ब्रह्मणों के कारण यह नाम पड़ा। गुजरात में सबसे पुराना प्रामाणिक लेख, जिसमें नागरी अक्षर भी हैं, जयभट तृतीय का कलचुरि (चेदि) संवत् 456 (ई० स० 706) का ताम्रपत्र है। गुजरात में जितने दानपत्र नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं। राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उत्तर भारतीय लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यवहृत होने के कारण वहाँ नागरी कहलाई।
शामशास्त्री के अनुसार,प्राचीन समय में प्रतिमा बनने के पूर्व देवताओं की पूजा कुछ सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोण आदि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे। ये त्रिकोण आदि यंत्र ‘देवनगर‘ कहलाते थे। उन ‘देवनगरों‘ के मध्य में लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में अक्षर माने जाने लगे। इसी से इन अक्षरों का नाम ‘देवनागरी‘ पड़ा‘। “राष्ट्रकूट” राजा “दंतदुर्ग” के एक ताम्रपत्र के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दक्षिण में “नागरी” का प्रचलन 754 ई। में था। वहाँ इसे “नंदिनागरी” कहते थे।
देवनागरी या नागरी से ही “कैथी”, “महाजनी”, “राजस्थानी” और “गुजराती” आदि लिपियों का विकास हुआ। प्राचीन नागरी की पूर्वी शाखा से दसवीं शती के आसपास “बँगला” का आविर्भाव हुआ। 11वीं शताब्दी के बाद की “नेपाली” तथा वर्तमान “बँगला”, “मैथिली”, एवं “उड़िया”, लिपियाँ इसी से विकसित हुई।